Ayurvedic shabado ke aarth

आयुर्वेदिक शब्दों के अर्थ 
अनुपान - जिस पदार्थ के साथ दवा सेवन की जाये जैसे जल,शहद
अपथ्य - त्यागने योग्य, सेवन न करने योग्य
अनुभूत - आज़माया  हुआ
असाध्य - लाइलाज
अजीर्ण - बदहज़मी
अभिष्यनिद - भारीपन और शिथिलता पैदा करने वाला जैसे दही
अनुलोमन - नीचे की तरफ गति करना
अतिसार - बार-बार पतले दस्त होना
अर्श - बवासीर
अर्दित - मुंह का लकवा
आम - खाए हुए आहार को आम कहते हैं अन्न नलिका से होता हुआ अन्न जहां पहुंचता है उस अंग को आम का स्थान कहते है
आहार - खान-पान
ओज - जीवन शक्ति
उष्ण - गर्म
उष्ण वीर्य - गर्म प्रकृति का
कष्टसाध्य - कठिनाई से ठीक होने वाला
कल्क - पिसी हुई लुगदी
क्वाथ - काढ़ा
कर्मज - पिछले कर्मो के कारण होने वाला
कुपित होना - वृद्धि होना
काढ़ा करना - द्रव्य को पानी में इतना उबाला जाय कि पानी जल कर चौथा अंश शेष बचे, इसे काढ़ा करना कहते हैं
कास - खांसी
कोष्ण - कुन कुना गर्म
गरिष्ठ - भारी
ग्राही  -  जो द्रव्य दीपन और पाचन दोनों कार्य करे और अपने गुणों से जलीयांश को सुखा  दे जैसे सौंठ
गुरु -  भारी
चतुर्जात - नागकेशर , तेजपात , दालचीनी , इलियाची
त्रिदोष - वात , पित, कफ
त्रिगुण - सात, राज, तम
त्रिफला -  हरण , वहेड़ा , अमला
त्रिकटु - सौंठ , पीपल , कालीमिर्च
तृषा - प्यास , तृष्णा
तन्द्रा - अध कच्ची नींद
दाह - जलन
दीपक- जो द्रव्य जठराग्नि को बढ़ाए परन्तु पाचन शक्ति न बढ़ाए जैसे सोंफ
निदान - कारण , रोग उत्पत्ति के कारणों का पता लगाना (डायग्नोसिस )
नस्य - नाक से सुघने की नासका
पंचांग - पांचो अंग - फल, फूल, बीज, पत्ते और जड़
पंचकोल - चव्य , चित्रक छाल , पीपल , पीपलामूल और सौंठ
पंचमूल बृहद - बेल, गंभारी, अरणी, पाटला, श्योनाक
पंचमूल लघु  - शालिपर्णी , प्रश्रीपर्णी , छोटी कटेली, बड़ी कटेली, और गोखरू  (दोनों दस्मुल कहलाते हैं)
परीक्षित - आज़माया   हुआ
पथ्य - सेवन योग्य
परिपाक - पूरा पक जाना , पच जाना
प्रकोप - वृद्धि, उग्रता , कुपित होना   
पथ्यापथ्य - पथ्य एवं अपथ्य
प्रज्ञापराध -जानबूझकर अपराध  कार्य करना
पाण्डु - पीलिया रोग,रक्त की कमी होना
पाचक - पचाने  वाला, पर दीपन न करने वाला द्रव्य जैसे नाग केसर
बल्य - बल देने वाला
भावना देना - किसी द्रव्य के रस में उसी द्रव्य के चूर्ण को गीला करके सुखाना l  जितनी भावना देना होता है उतनी ही बार चूर्ण को उसी द्रव्य के रस में गीला करके सुखाते हैं
मूर्छा - बेहोशी
कुपित दोष की पहचान और उसकी शान्ती के उपाय 
                                                   वात का प्रकोप 
वात का स्वरूप : वात रुखा, शीतल, हल्का, घाव भरने वाला, योगवही और रजोगुण वाला है । यह समस्त धातु-मलादि  का विभाग करता है और समस्त शारीरिक क्रियाओं को गति देता है । तीनो दोषों में सर्वाधिक बलवान वात है जिसके बिना पित्त और कफ अपने आप में लूले-लंगड़े हैं । वास्तव में वायु ह्रदय और वात नाड़ी की चालक है और इनके कारण ही आयु और जीवन है । आयुर्वेदानुसार वात के पांच प्रकार हैं :- उदानवायु, प्राणवायु, अपानवायु, व्यानवायु ।
वात प्रकोप के लक्षण : 
  • शरीर का रुखा-सूखा होना ।  
  • धातुओं का क्षय होना या तन्तुओं के अपर्याप्त पोषण के कारण शरीर का सूखना या दुर्बल होते जाना । 
  • अंगो की शिथिलता, सुन्नता और शीतलता । 
  • अंगों में कठोरता और उनका जकड़ जाना। 
  • त्वचा का खासकर पैरों की बिबाइयां,हथेलियां,होंठ आदि का फटना । 
  • नाखून,केश आदि का कड़ा और रूखा होना । 
  • आंगों और नाड़ियों में खिंचाव होना, सुइयां चुभने, तोड़ने या झटका लगने, मसलने,काटने जैसी पीड़ाएं होना । 
  • जोड़ों में दर्द होना, जोड़ो का चट-चट करना । 
  • अंगों में वायु का भरा रहना । 
  • पेट का गैस से फूलना और अपानवायु का अधिक निकलना । डकार या हिचकी आना । 
  • भूख-प्यास अनियमित अर्थात कभी ज्यादा, कभी कम लगना । 
  • मुख का सूखना,स्वर का कर्कश होना । 
  • स्वाद कसैला होना । 
  • मल-मूत्र व पसीना कम आना और अनियमित आना । 
  • कब्जियत रहना । 
  • नींद का न आना । जम्हाइया, सुस्ती व थकान का अधिक आना । 
  • नाड़ी का तेज चलना । सांप की चाल के समान टेढ़ी-मेढ़ी गतियुक्त नाड़ी । 
वातप्रधान रोग और व्याधियां होना : जैसे पक्षघात, संधिवात, गठिया, वायुगोला उठना, वातज्वर होना, कम सुनाई देना या बहरापन होना, सन्नायु  संस्थान का कमजोर हो जाना और उससे संबंधित रोग का होना ।
वात के कुपित होने के विपरीत वात के जरूरत से कम होने पर : अंगों में शिथिलता, बोलने की शक्ति में कमी, बलगम और आंव की उत्तपत्ति होती है और प्रायः कफप्रकोप के लक्षणो से मिलते-जुलते लक्षण उत्पन्न होते हैं ।
वातवर्धक 
वात-प्रकोप के कारण :
  • कड़वे,कसैले, चरपरे रसवाले पदार्थों का अधिक सेवन । रूक्ष, हल्का और अल्प भोजन करना । 
  • उपवास या भूखा रहना । 
  • ठण्डे बासी, गैस करने वाले, फास्टफूड,डिब्बेबंद व सत्वहीन और प्रदूषित खाद्य पदार्थ का सेवन । 
  • वातवर्धक आहार का सेवन जैसे:- चावल, जौ, चने का शाक, सूखे भुने हुए चने, मोठ, मसूर, अरहर, चीनी, फूल गोभी, मटर, सेम कच्चा मूली,पालक अधिकतर सूखे मेवे । मादक और उत्तेजक जैसे ज्यादा चाय, काफी, धूम्रपान, शराब, ड्रग्स आदि का सेवन । 
  • स्वाभाविक वेगों जैसे:- मल, मूत्र, अधोवायु, आंसू ,वमन, छींक आदि का रोकना । 
  • शीतल जल से स्नान या वर्षा से भीगना। फ्रिज का ठण्डा पानी पीना । 
  • अधिक समय तक शारीरिक व मानसिक परिश्रम करना । अधिक जोर लगाने वाले अति व्यायाम करना या अधिक शक्तिशाली के साथ पहलवानी करना । भारी वजन उठाना । 
  • अनावश्यक रूप से रातों में देर तक जागना या स्वाभाविक निद्रा में बाधा डालना । 
  • अधिक भ्रमण, अधिक बोलना, अधिक चिन्तन, अधिक सहवास, अधिक उत्तेजित करने वाले टेलीविजन, चल-चित्र आदि का लगातार देखना तथा राँक संगीत या रेप संगीत का लगातार सुनना ।    
  • दुर्घटनावश किसी ऊंचे स्थान से गिरने से चोट लगाना या अस्थिभंग होना, घोड़े, हाथी तथा अन्य वाहनों से गिरना और मर्मस्थानों में चोट लगना । 
  • आधुनिक चिकित्सा उपकरणों द्वारा बिजली, वायलेट किरणें, एक्स-रे, रेडियम,वाइब्रेटर आदि का अंवाछित प्रयोग 
  • मानसिक अशान्ति या लगातार तनावयुक्त या चिंतामग्न रहना, हृदयभेदक अत्याधिक शोक का अनुभव करना । भयभीत रहना,चित्त की चंचलता, धैर्यहीनता, अत्यधिक क्रोध, उत्तेजना, अत्यधिक रति व वीर्य नाश अथवा मानसिक विकृतियां । 
  • आधुनिक प्रकृतिविरुद्ध रहन-सहन व जीवन शैली का अपनाना जैसे : - लगातार कामोत्तेजनापूर्ण मनोरंजन, भ्रमण, तेज सवारी जैसे वायुयान, कार आदि का अधिक प्रयोग । प्रदूषित, शोरभरा व उत्तेजनापूर्ण वातावरण। अत्यधिक भोग विलास और कामवाशना में डूबे रहना, आधुनिक दर्दनाशक व शुष्क औषधियों का अवांछित और लगातार लम्बे समय तक प्रयोग। टेलीविजन, कप्यूटर के आगे अधिक देर तक लगातार टकटकी लगाकर देखते रहना, ऊंची आवाज के संगीत जैसे राँक संगीत,रेप संगीत आदि का लगातार सुनना । 
  • पांच सितारा होटल संस्कृति (जिसमें अनावश्यक रूप से स्वस्थवृत विरुद्ध खान -पान, कामोत्तेजक नाच-गाने, मंदिरापान,रात्रि जागरण की विशेष परिपाटी है ) का अपनाना । 
  • अवस्था :- वृद्धावस्था में वात की अधिकता रहती है । 
वातनाशक/वातशामक 
वातनाशक उपाय :
  • मीठे,खट्टे, नमकीन रसवाले तथा तन्तुपोषक पदार्थ का सेवन । 
  • भारी, चिकने, गर्म पदार्थों का सेवन । 
वातनाशक खाद्य वस्तुएं :-
  • गेहूं की रोटी, पुराने वासमती चावल, कुलथी, उड़द, सरसों, तिलकूट । तिल का तेल । गे का दूध, छाछ, घी । मिश्री, देसी खांड । अदरक, पोदीना, प्याज,परवल,बथुआ,लौकी,तेल में पकाये हुए प्याज और मूली,चौलाई,गाजर, सहजना की फली, पके करौंदे । अंगूर, नारंगी, फालसा, शहतूत, पपीता, पके आम व मीठे आम का रस, मीठा अनार आदि । अखरोट,बादाम,अंजीर, मुनक्का,खजूर । 














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